एक शिक्षक, हजार जिम्मेदारियां: मध्यप्रदेश में टूटती शिक्षा व्यवस्था की तस्वीर 2025

भोपाल:
2021 में UNESCO की एक रिपोर्ट ने भारत की शिक्षा प्रणाली की जमीनी सच्चाई सामने रखी — मध्यप्रदेश में सबसे ज़्यादा सिंगल-टीचर स्कूल हैं, यानी ऐसे स्कूल जहाँ केवल एक ही शिक्षक कार्यरत है। यह संख्या थी 21,077। तीन साल बाद केंद्र सरकार के अनुसार यह संख्या घटकर 12,210 रह गई है। यह आंकड़ा सुनने में भले ही राहत भरा लगे, लेकिन असल में यह विफलता का नया नामकरण है, कोई उपलब्धि नहीं।

मध्यप्रदेश में शिक्षा प्रणाली सिर्फ़ कमजोर नहीं हुई, वह ढह चुकी है।

एक शिक्षक के कंधों पर पूरा स्कूल

एक सिंगल-टीचर स्कूल कागज़ पर भले ही “प्रबंधन की कुशलता” जैसा दिखे, लेकिन सच्चाई है – यह शिक्षक और छात्रों के लिए थकावट और तनाव की सजा है।
ऐसे स्कूलों में एक शिक्षक को न केवल कई कक्षाओं को एक साथ पढ़ाना होता है, बल्कि उसे अनेक अतिरिक्त कार्य भी निभाने होते हैं:

मिड-डे मील योजना की निगरानी

प्रशासनिक काम जैसे रजिस्टर भरना, रिपोर्ट तैयार करना

घर-घर जाकर सर्वे करना

स्कूल की सफाई, मरम्मत और सुरक्षा तक

कई बार ऐसे शिक्षक महीनों तक बिना वेतन काम करते हैं। वे शिक्षक ही नहीं, बल्कि चपरासी, सफाईकर्मी, रसोइया और चौकीदार भी होते हैं — और इन सबके बीच उन्हें पढ़ाना होता है 40-50 बच्चों को, जिनकी कक्षाएं और विषय भी अलग-अलग होते हैं।

बुनियादी सुविधाओं का अभाव: स्कूल या संघर्ष शिविर?

मध्यप्रदेश के स्कूलों की हालत राजधानी भोपाल से लेकर सुदूर गांवों तक एक जैसी बदतर है। कहीं छतें टपकती हैं, कहीं बिजली नहीं है, और कहीं बच्चों को टॉयलेट तक नसीब नहीं।

9,500 स्कूलों में आज भी बिजली नहीं है।

1,745 स्कूलों में लड़कियों के लिए शौचालय नहीं।

775 स्कूल ऐसे हैं जहाँ रैम्प नहीं, यानी विकलांग बच्चों के लिए कोई व्यवस्था नहीं।

4,815 में से सिर्फ़ 986 स्मार्ट क्लास ही चालू हैं।

3,342 क्लासरूम आज भी अधूरे हैं या निर्माणाधीन।

इन हालातों में न तो शिक्षक सम्मान से पढ़ा सकते हैं, और न ही बच्चे गरिमा के साथ सीख सकते हैं।

टूटी छतें, गीली चटाई और गर्म टिन की दीवारें

भोपाल के कटारा हिल्स क्षेत्र का संदीपनी स्कूल एक उदाहरण है। यह स्कूल मुख्यमंत्री “राइज़ योजना” के तहत रिब्रांड किया गया था। लेकिन आज यह टिन की छत वाले किराए के भवन में चल रहा है। गर्मियों में वह छत तंदूर बन जाती है, बरसात में पानी रिसता है, और एक ही कमरे में 5 कक्षाएं एकसाथ चलाई जाती हैं।

शिक्षिका प्रांजल श्रीवास्तव बताती हैं, “बरसात में चटाई गीली हो जाती है, बच्चे कीचड़ में बैठते हैं। इतनी भीड़ में पढ़ाना मुश्किल होता है।”

जहाँ इतिहास पढ़ाया जाता था, आज दीवारें गिर रही हैं

भोपाल का जहांगिरिया स्कूल, जहाँ कभी पूर्व राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने पढ़ाई की थी, अब जर्जर हालत में है। छत टपकती है, प्लास्टर गिरता है, और भवन का एक हिस्सा ‘असुरक्षित’ घोषित हो चुका है। प्रधानाध्यापिका वरषा बंटोड़ कहती हैं, “हम सिर्फ़ बची-खुची सुरक्षित जगहों में पढ़ा रहे हैं। कब तक ये चलेगा, पता नहीं।”

नेगमा गाँव: जहाँ स्कूल अब मंदिर में चलता है

शिवपुरी के नेगमा गांव में स्कूल की इमारत इतनी खस्ताहाल है कि अब उसे गौशाला के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है। बच्चे अब पास के मंदिर में पढ़ते हैं, जहाँ वे धार्मिक भजन, घंटियों की आवाज़ और घूमते मवेशियों के बीच अपनी पढ़ाई जारी रखने की कोशिश करते हैं।

सरकार के वादे और बच्चों की हकीकत

राज्य के शिक्षा मंत्री उदय प्रताप सिंह दावा करते हैं कि “मुख्यमंत्री मोहान यादव के नेतृत्व में नई कक्षाओं और मरम्मत के लिए बजट स्वीकृत हो चुका है।” लेकिन बच्चों को इरादों से छत नहीं मिलती, और शिक्षकों को वादों से वेतन नहीं मिलता।

निष्कर्ष:

मध्यप्रदेश में शिक्षा व्यवस्था नीतियों और धरातल के बीच फंसी हुई है। जहाँ शिक्षक टूट चुके हैं, छात्र थक चुके हैं, और विद्यालय खंडहर बन चुके हैं। यह केवल प्रशासनिक विफलता नहीं, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के भविष्य के साथ विश्वासघात है।

जब तक शिक्षक की इज़्ज़त और बच्चों की ज़रूरत को प्राथमिकता नहीं दी जाएगी, तब तक “शिक्षा का अधिकार” केवल पोस्टर की शोभा बना रहेगा।

https://www.ndtv.com/india-news/classroom-of-broken-promises-collapse-of-public-education-in-madhya-pradesh-8893889

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